मैथिली कथा – निष्ठा कि देखाबा ?

Byदूधमती साप्ताहिक

२ मंसिर २०८०, शनिबार १५:१९ २ मंसिर २०८०, शनिबार १५:१९ २ मंसिर २०८०, शनिबार १५:१९

सुजीत कुमार झा

घरक कलवेलक घण्टी बाजल । हमर परम मित्र सोहन गेटपर चुपचाप भाव हीन मुद्रामे ठाढ़ छलाह संगमे हुनकर कनियाँ नीमा सेहो । हम आह्लादित होइत सोहनकेँ अपन हृदयसँ लगएलहुँ ।
ओ धड़फड़एलैथि । दम्माक रोगी जकाँ हकमऽ लगलैथि, ‘श्रीनाथ हमरा छोड़ब नहि, अन्यथा खसि पड़ब ।’
हम घबराकऽ हुनका अपन बाँहिसँ पकडि़ लेलहु, ‘सोहन अहाँक मुँह सुखा किए गेल अछि ?’
‘हिनका बोखार छैन्हि, तीन–चारि महिनासँ,’ नीमा बाजि उठलीह ।
बहुत दुःख भेल । ‘भितर चलू ।’ हम हुनका सहारा दैत कहलहुँ । मुदा ओ आगा नहि बढि़ सकलैथि । ठाढ़े रहलाह । हुनका आँखिमे मजबुरीक भाव छलैकि आएल, ‘श्रीनाथ, हम स्वयं चलियो नहि सकैत छी ।’
हम हुनका कोरामे उठा लेलहुँ आ ड्राइंगरुम दिस बढि़ गेलहुँ ।
‘ओमहर नइँ जाहिमे हमरा राखब, ओतऽ लऽ चलू । थाकि गेल छी, विश्राम करब ।’
हम हुनका अपन शयनकक्षक बगलबला रुममे लऽगेलहुँ । ‘श्रीनाथ, आब हम एकटा बोझ भऽ गेल छी ।’ हुनकर आँखि बन्द छल । ओ लम्बा–लम्बा साँस लऽ रहल छलाह ।
‘घबराउ नहि मित्र, सभ ठीक भऽ जाएत ।’
‘आब किछु नहि भऽ सकत । डाक्टर जबाब दऽ देने अछि । नीमाक जिद्द छल धरानमे देखएबाक तँए आबऽ पड़ल । हमर किडनी खराब भऽगेल अछि शायद ।’
‘हम अहाँकेँ डाक्टर सरोज कोइरालासँ देखाएब । एहि रोगक विशेषज्ञ छथि । हुनकर बहुत नाम छैन्हि । मुर्दामे सेहो जान पूmकि सकैत छथि । हम एखने नम्बर लगाबऽ जारहल छी । अबेर कएलासँ नम्बर नहि भेटत ।’
घरसँ प्रस्थान करऽसँ पूर्व हम अपन कनियाँसँ कहलहुँ, ‘ई हमर विशेष पाहुन छथि । स्वागत सत्कारमे कमी नहि हएबाक चाही ।’
‘बूझल अछि, अपने निश्चिन्त रहू,’ओ कहलीह ।
डाक्टर सरोज कोइरालाक क्लिनिकमे बहुत लम्बा लाइन छल मुदा पछिलका द्वारसँ जा कऽ अपन जोगाड़ कऽ लेलहुँ । घूमिकऽ अएलाक बाद हुनका सभकेँ लऽकऽ जल्दीसँ डाक्टर लग पहुँचलहुँ । तखन प्रारम्भ भेल हुनकर जाँचक चक्र ।
‘हिनकर दुनू किडनी सडि़ गेल अछि ।’
‘डाक्टर साहेब ई बदलल सेहो जा सकैए ।’
‘भारतक भेल्लोरमे किडनीके प्रत्यारोपण होइत अछि ।’ ‘हम हिनकर इलाज ओतहि कराएब , अपने रेफर कऽ देल जाउ ।’
‘बढियाँ बात अछि । तहियाधरि हिनका हमर लिखल दबाइ चला दियौ । एक हप्ताक कोर्ष अछि । प्रत्येक दिन एकटाकऽ सुइ । मुदा ध्यान राखब कोनो प्रशिक्षित कम्पाउण्डर सँ मात्र सुइया लगाएब । नशमे सुइ लागत एहि दवाइसँ बोखार उतरि जाएत तथा हिनका राहत महशुस हएत ।’
हम डाक्टर सरोज कोइरालाक क्लिनिक आगा रहल दवाइ दोकानसँ दवाइ किनलहुँ । तखन नीमा धीरेसँ हमरा कहलैन्हि, ‘श्रीनाथ जी, दवाइ फिर्ताकऽ दियौ ।’
‘….किए ?’
‘एतऽसँ सीधा अपन गाम जाएब । हमरा सभकँे एकटा गाड़ी रिजर्वकऽ दिय कनिक जीप टाइपक हएवाक चाही । उबर–खाबर गामक सड़कपर जीपे चलि सकैत अछि ।’
हम अकचका गेलहुँ । ‘ई की कहि रहल छी ?’ इलाज नहि करएबाक अछि की ?
‘श्रीनाथजी अपनेकेँ कनी उटपटाङ्ग लागत, मुदा एखन अपनेकेँ सम्झाइयो नहि सकैत छी । हमरा लग एतेक समय नहि अछि । हिनका होश रहिते घरपर पहुँचब आवश्यक अछि । कतेको आवश्यक कागजपर हिनकर सही लेवाक अछि । पेन्सन कागजपर सेहो ।’
‘नीमा आश्र्चयक बात करैत छी, अहाँ अपन स्वार्थमे आन्हर तऽ नहि भऽगेल छी ? किछु आओर कठोर बात कहबाक मोन भेल मुदा अपनाकेँ रोकि लेलहुँ । वा ई कही हुनकर पतिभक्ति आ निष्ठाक सम्बन्धमे एहिसँ पहिने कोनो दोष नहि देखने छलहुँ । सोहन हुनकर सभ दिन बराइए करैत रहैत छलाह । …..सम्भव अछि ….. किडनी सड़बाक बात सूनिकऽ घबरा गेल होइथ, तँए हम शान्त स्वरमे स्मरण करएलहुँ, ‘अहाँक गाममे प्रशिक्षित कम्पाउण्डर नहि हएत । ई सुइया ककरासँ लगाएब ?’
‘एकटा कम्पाउण्डर सेहो ठीककऽ दिअ जे सङे जाए, जे मागत ओ देल जएतै ।’ हुनकर स्वर बदलल–बदलल छल । आग्रह नहि, बरु टालमटोल बला ।
हुनका प्रति हमरा विभिन्न शङ्का सभ होबऽ लागल मुदा बीच सड़कपर हुनकासँ झगड़ा करब हम नीक नहि बुझलहुँ तँए कनी धीरेसँ हम कहलहुँ, ‘सभ व्यवस्थाकऽ देब, मुदा एहिमे किछु समय लागत । अहाँ सभ ताधरि हमर घर चलू । हम जल्दिए जीप आ कम्पाउण्डर लऽकऽ अबैत छी ।
अहाँ सभ ओतहि रहब ।’ हुनका सभकेँ सम्झएला बुझएलाक बाद ओ सभ हमर घर दिस विदा भेल आ हम चैनक साँस लेलहुँ, मुदा स्वयं घर जाएबाक हिम्मत नहि जुटा पाबि रहल छलहुँ ।
किछु देरक बाद घर पहुँचिते नीमा अपन घर जाएके बात करऽ लगलीह । तखन हमरा वर्दास्त नहि भेल । तत्काल सोहनकेँ सुइ लगाएब हमर प्राथमिकतामे छल । सात दिनधरि हुनका कोनो हालतमे रोकि हम योजना बनाबऽ लगलहुँ । मोनमे विचारक बिहारि उठि रहल छल । ओ नीमाक रुप छल वा विरोधक उपाय ? एनामे हुनका भेल्लोर कोना लऽ जा सकब ? एहि चिन्तामे किछु देर सोचैत रहलहुँ ।
साँझ भऽगेल तखन एकटा कम्पाउण्डर लऽकऽ घर पहुँचलहुँ । सोहन आँखि मूनिकऽ ओछाएनपर पड़ल छलाह । हम घबराकऽ हुनका दिस बढ़लहुँ । हुनकर नाड़ी असमान्य गतिसँ चलि रहल छल । ओ वेहोशीक अवस्थामे छलाह । ‘कम्पाउण्डर साहेब कनी जल्दी इन्जेक्शन लगाउ ।’
‘श्रीनाथ जी हम दवाइ फिर्ताकऽ देलहुँ अछि,’ नीमा कहलीह ।
‘किए ? हम डपैटकऽ हुनकासँ पुछलहुँ ।
ओ डरा गेलीह । ‘इएह कहने छलाह ।’ओ सोहन दिस इशारा करैत बजलीह । हमर टेम्पे्रचर बढि़ गेल, ‘ई अहाँसँ जहर मगता तऽ ओहो अहाँ दऽदेबै ? छी ।’ हम जमीनपर थूकि देलहुँ ।
ओतऽ हुनकर छाया छल । हम दौड़ैत फेरसँ सात दिनक लेल दबाइ किनकऽ लऽ अनलहुँ । कम्पाउण्डर हुनका सुइ लगओलक । हम ओकरा पैसा दऽकऽ विदा कएलहुँ । किछु देरक बाद सोहनके आँखि खूजल । हमरा चिन्ह लेलाह, ‘श्रीनाथ अहाँ कखन अएलहुँ । बहुत प्रतीक्षा करओलहुँ । हमरा जाएके व्यवस्था भऽ गेल ?’
‘बहुत निष्ठुर छी अहाँ । हमरासँ अपन मृत्यु मागि रहल छी । अरे हम अहाँके मित्र छी यमदूत नहि । हम अहाँक यमफाँसकेँ काटि देब । भेल्लोर लऽ जाएब अहाँकेँ । ई हमर निवेदन अछि । एकरा अपने हमर हठ सेहो बूझि सकै छी ।’
‘एतेक रुपैया नहि अछि हमरा लग । सेवा निवृतिक बाद दूटा बेटीक बियाह कएलहुँ हम, से अहूँकेँ बूझल अछि । एहि बियाहमे हमर सव पैसा समाप्त भऽ गेल आओर जे किछु बाँकी छल बिमारीमे लागि गेल ।’
‘पैसाक चिन्ता नहि करु । एकर उपाय अछि हमरा लग । एतेक रुपैया अछि हमरा लग ।’
‘आइधरि हम ककरोसँ कर्जा नहि लेने छी आ जाधरि जीव लेबो नइँ करब ।’
‘एकरा हमर सहयोग बुभूm ।’
‘हम ककरो एहसान उधार नहि रखने छी आब उतारबाक सामथ्र्य नहि अछि, तँए नहि लेब,’ सोहन दृढ स्वरमे कहलैन्हि ।
नीमाक मुँहपर परम तृप्तिक भाव पसरि गेल, ‘श्रीनाथजी अपने अनावश्यक रुपसँ हमरापर तमसा रहल छलहुँ, अपने सेहो सम्झाकऽ बूझि गेलहुँ ने ।’
हम हुनकर जवाब तमैककऽ देलहुँ, कर्जा नहि, एहसान नहि, अहाँ अपन जमीनक किछु भाग बेच लिअ, अहाँके दू–चारि बिग्घा जमीन अछिए, ओहिमेसँ किछु हटा दियौ ।’
‘एतेक जल्दी बढियाँ ग्राहक नहि भेटत, भेटबो करत तऽ सही दाम नहि देत । किनऽ बला हमर आवश्यकताके मजबुरी बूझिकऽ कम मोलमे किनऽ चाहत,’ नीमा ठीक कहि रहल छथि ।
हम हुनका बहुत सम्झएलहुँ, मुदा ओ नहि मानलथि । तखन हुनकापर हम कसिकऽ बरसि गेलहुँ, ‘जीवनदायनी दवाइ किनबाक समय रुपैयाके मोह त्यागऽ पडैÞत छै । भाव मोलक समय वर्वाद नहि करबाक चाही । फेर अहाँ सभ एहि परिस्थितिके घुमा किए रहल छी । ई केहन पति भक्ति भेल अहाँके ? ई केहन निष्ठा ? महिला जातिक लेल अहाँ कलङ्क छी । अहाँकेँ मात्र अपनासँ मतलव अछि । पेन्सन पेपरपर सही लेवाक स्वार्थ ।’
‘श्रीनाथ, नीमाक अपमान नहि करीयौ ई सभ आरोप अछि, हमही कहने छलहुँ मृत्यु पूर्व कागज सभके ठीक करबऽ लेल । ई एक पति–परायण महिला छथि । ई हमरा खुब सेवा करैत छथि । हमरा हिनकासँ कोनो शिकायत नहि अछि, ’ सोहन कड़ा प्रतिवाद कएलैन्हि ।
ओ अपन इज्जत नुका रहल छलाह । ओ अपन आँखि खोलला मुदा हुनका सत्य नहि देखा रहल छल । अर्ध चेतनमे ओ सही आ गलतक आकलन सेहो नहि कऽ रहल छलाह ।
‘नीमा अहाँ अपन जमीनक मोल लगाउ अहाँक इच्छा अनुसार मोलपर हम जमीन किनब । हमरा लग बन्हकी सेहो राखि सकैत छी । सुविधा अनुसार रुपैया दऽकऽ छोड़ा सेहो सकैत छी ।’ मुदा नीमा चुप भऽ गेली । एना किए ? हमर प्रस्ताव सर्वथा स्वागत योग्य छल तैयो ओ कोन उल्झनमे छथि । कतहु हुनकर सम्वेदना देखाबटी तऽ नहि अछि ?
अपन पति प्रति हुनकर निष्ठा कृत्रिम तऽ नहि अछि ?
‘की अहाँक पति भक्ति एकटा ढोङ मात्र अछि ?’
‘नहि श्रीनाथ ई नहि ….. अपन जमीन बिक्री होबऽ नहि देब । हमर कनियाँ आ धीया–पुता की खाएत ? इएह हिनका सभक लेल एक मात्र आधार रहि गेल अछि ।’ सोहन अपना कनियाँकेँ बचाब कएलैन्हि । अपन मुक्तिक मार्ग प्रशस्त करबाक लेल हुनकर युक्ति छल ।
किछु होउक, मुदा हम उपचारसँ विमुख नहि होबऽ देब । तँए अन्तमे हम ब्रह्मास्त्रक प्रयोग कएलहुँ, ‘नीमा अहाँ लग किछु गहना अछि, ई बात हमरा बूझल अछि, एहिसँ पतिक इलाज कराउ ई अहाँक पति निष्ठाक अन्तिम परीक्षा अछि ।’ मुदा नीमा अपन गर्दैनि झुका लेलीह । हमरा दुःख लागल । हम आश्चर्यमे छलहुँ । हम चुपचाप माता जानकीक प्रार्थना करऽ लगलहुँ, हे माता ! हिनका सभकेँ सद्बुद्धि दिऔ ।’
‘श्रीनाथ हमर बात सुनऽ हमर स्थिर मन प्राणके अवाज सुनऽ भाइ । हमर सूर्य अस्त होबऽ बला अछि । हमरा एकर अभाष भऽ रहल अछि । हम विदेशमे शरीर त्यागऽ नहि चाहैत छी । हम भेल्लोर कोनो हालतमे नहि जाएब , ई हमर अन्तिम इच्छा अछि । घर जएबाक व्यवस्था कऽ दिअ मित्र ।’
सोहन निराश भऽगेल छलाह । हुनका अपन चारु दिस अपन मृत्यु नजर आबि रहल छल । मृत्युक भयसँ डेराएल ई हुनकर वेदना छल । मुदा नीमा हुनका झुठोके सान्त्वना देवाक औपचारिकता नहि बुझलीह, ओ हुनकर मृत्यु गीतक कनिको विरोध नहि कएलैन्हि । आखिर किए ? किए ?? हम फेरसँ सक्रिय भेलहुँ, ‘ई अहाँके मात्र भावुकता अछि मित्र । जीवन आ मृत्युमे बहुत अन्तर होइत अछि जेना दिन आ रातिमे । जाधरि साँस ताधरि आश अछि बुझऽ पड़त । ई हमरा सभक कर्तव्य सेहो अछि । अहाँ सेहो एहिना करितहुँ । अहाँक स्थानपर यदि नीमा होइतथि तऽ अहाँ की करितहुँ ? हिनका अहाँ भेल्लोर नहि लऽ जएतहुँ ।’
सोहन पुनः अपन आँखि बन्दकऽ लेलाह अपन मुँह सेहो बन्दकऽ लेलाह ओ झुठ नहि बाजि सकैत छलाह । सत्य सेहो स्वीकार नहि कऽ सकैत छलाह ओ । ओ मात्र रुसि सकैत छलाह, जिद्द कऽ सकैत छलाह, जीवाक लेल किछु तऽ चाही, ओ नीमामे नहि छल हम हुनकर मोनक अर्थ बूझि गेल छलहुँ ।
नीमा स्वयं जीप गाडी रिजर्व कऽ अनलीह । संगमे कम्पाउण्डर नहि जाएत एकर व्यवस्था अपने लगक शहरसँ ओ कऽ लेतिह । हम भरि राति एहि बातकेँ लऽकऽ चिन्तित रहलहुँ । हमर मोनमे कोना–कोना भऽ रहल छल । भोरमे जखन हमरासँ बिदा लेबऽ आएला तखन हम हुनकासँ पुछलहुँ, ‘इलाज नहि करएबाक छल तऽ एहि ठाम एलहुँ किए ?’
‘नहि लबितहुँ तऽ गामक लोक हमरा धिक्कारैत तँए । घर–घरमे फुसुर–फुसुर होइत …. नीमा पतिकेँ बढियाँ इलाज नहि करओलैन्हि । जहियाधरि चलैत–फिरैत रहथि तहिया लगक शहरमे हिनका उपचार करबैत रहलियैन्हि, मुदा एहिपर केओ ध्यान नहि देलक । सोचैत छल हएत पेन्सन लेबऽ लेल जाइत । जीपपर लादिकऽ गामसँ हिनका लेलहुँ अछि तखन गामक बच्चा–बच्चा बूझि गेल, आब केओ हमर इमानपर आङुर नहि उठाओत ।’
हुनकर सम्वेदनशीलता पुरा–पुरा कुण्ठित भऽगेल छल । हुनकर कर्तव्य परायणता आ पतिनिष्ठा खोखला भऽगेल छल । ओ एक यांत्रिक महिला छलीह । अपन गामक लोकक अभिमतके लेल अपन पतिक इलाजक नाटक कएलैन्हि । हम जाइतो जाति व्यंङ्गवाण छोड़य सँ पाछू नहि रहलहुँ, ‘ड्राइभर साहेब साँझसँ पूर्वे प्रवेश करियह, कारण गामक लोक जल्दी सूति रहैत अछि । धीरेसँ गाडी चलबियह आ जोड़सँ लगातार हर्न बजबियह । कारण सभ लोककेँ पता चलि जाइक सती–सावित्री सत्यवाणकेँ ल कऽ चलि आएल छथि ।
तीन दिनक बाद सोहन स्वर्ग विदा भऽ गेलाह ।

 

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